रविवार, 8 अप्रैल 2007

वो जो एक पेड़ था

प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है मनुष्य। और आज यही मनुष्य प्रकृति को नष्ट किये जा रहा है। अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, प्रदुषण, पानी का अपव्यय, जैव चक्र में असंतुलन यह सब मानव ही तो कर रहे हैं। इन सबके दूरगामी परिणामों से परिचित होते हुए भी हम कहाँ बाज आ रहे हैं। कुछ मुट्ठी भर लोग ही हैं जो इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं, पर कई बार हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। केवल बेबसी से देखते ही रह जाते हैं। ऐसी ही बेबसी की स्थिति में मैने यह कविता लिखी थी, जो आप सभी सुधिजन के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। चाहें तो इसे नज़्म भी कहा जा सकता है क्योंकि मैने इसे इसी शक्ल में लिखने की कोशिश की है। इस रचना की कमियों की तरफ़ आप ध्यान देंगे और मुझे अवगत कराएंगे इस उम्मीद के साथ यहाँ दे रहा हूँ।


वो जो एक पेड़ था

मैं उस पेड़ को कटने से बचा न सका
वो जो एक कर्ज था उसे मैं चुका न सका

वो पेड़ जो उस बंगले के आँगन में खड़ा था
इशारे करके मुझे धीरे से बुलाता था
कभी छूकर नहीं देखा था मैने उसको
फिर भी एक रिश्ता था कोई हममें
ऐसा लगता था कि कोई पुराना साथी है
जो कि कई मुद्दतों का बिछुड़ा हो
उस नीम, उस पीपल या उस बरगद की तरह
जिनकी बाहोँ में था बचपन गुजरा

और उस दिन मैने वहाँ देखा हत्यारों को
साथ अपने वे हथियार लेके आए थे
वे उस पेड़ के ही खून के प्यासे थे
जान लेने को उसकी अमादा थे
मेरे दोस्त ने तब मुझको ही पुकारा था
उसकी आवाज़ में, चेहरे में एक दर्द सा था
घबरा गया था उसको देखकर मैं भी तो
कुछ तो करना है मुझे मैने ये सोचा था

बंगले के मालिक से मैं मिलने तो गया
बात उससे मगर अपनी मनवा ना सका
वो ऊंचे महलों का और मैं जमीं का था
शायद यही खौफ़ मेरे दिल मैं था
मैं डर गया था उससे नहीं लड़ पाया
और उस पेड़ को यूँ ही कट जाने दिया
देखता रहा उसके टुकड़ों के टुकड़े होते
कितना कायर था कि कुछ कर भी न सका

हाँ एक कर्ज ही तो था जिसे चुका न सका
कि उस पेड़ को कटने से भी बचा न सका

- सोमेश सक्सेना